सतीश मैथिल /अभिषेक लोधी सांचेत रायसेन। IND28.COM

सावन का महीना 30 अगस्त को खत्म हो रहा है। समय के साथ कितना बदलाव देखने को मिल रहा है एक समय था जब सावन माह के शुरू होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं गीतों के साथ झूलों का आनंद उठाती थीं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए। आंगन का अस्तित्व भी लगभग समाप्त होने की कगार पर है। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं।श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परंपरा जरूर अभी निभाई जा रही है। झूला झूलने का भी दौर अब समाप्त हो गया है। आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब कहीं नहीं दिखती है। ग्रामीण क्षेत्र की युवतियां भी सावन के झूलों का आनंद नहीं उठा पाती हैं। आज से दो दशक पहले तक झूलों और मेंहदी के बिना सावन अधूरा था।आज के समय में सावन के झूले नजर ही नहीं आते हैं। बुद्घिजीवी वर्ग सावन के झूलों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सुख, सुविधा और मनोरंजन के साधन मान रहे हैं। भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परंपरा वैदिक काल से ही चली आ रही है। भगवान श्रीकृष्ण राधा संग झूला झूलते थे और गोपियों संग रास रचाते थे। इससे प्रकृति के निकट जाने एवं उसकी हरियाली बनाए रखने की प्रेरणा मिलती थी।पहले झूला गांव के बगीचों, मंदिर के परिसरों में लगाया जाता था, जिस पर अधिकतर महिलाओं और युवतियों का ही कब्जा होता था। गांव के युवक इसमें शामिल अवश्य होते हैं, लेकिन केवल सहयोगी के रूप में। उन्हें दूर से ही इसे देखने की इजाजत मिलती थी। वर्तमान समय में झूले की परंपरा लुप्त होती जा रही है। इन झूलों के न होने से लोक संगीत भी सुनने को नहीं मिलते हैं।

अब समय बदल गया है------वक्त के साथ बहुत बदलाव आ गया है। अब लड़कियां पहले जैसे आजाद नहीं हैं कि कहीं जाकर झूला झूल सकें। पहले की बात ही कुछ और थी, लेकिन समय में बदलाव आ गया है।

श्रीमती अनीमा मंडल, सांचेत

अब खो गए हैं झूले-------पहले युवतियां सावन का इंतजार बड़ी बेसब्री से करती थीं कि सावन आते ही बगीचा में जाकर नीम के पेड़ पर रस्सी से झूला बनाकर झूला झूलेंगे। आज वह बगीचे ही नहीं बचे, जहां झूला झूल सकें। 

श्रीमती संजना ओझा, सांचेत

अब सभी व्यस्त हो गए हैं-------पहले हम सावन के महीने में सभी सहेलियां इकट्ठा होकर झूला झूलती थीं और बहुत आनंद आता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब सभी अपने काम में व्यस्त रहती हैं।

श्रीमती नीतू मैथिल

पहले गांवों में बड़े-बड़े वृक्ष होते थे। उन वृक्षों की शाखाओं पर झूले पड़ते थे। महिलाएं सावन के गीत गाती थीं। तब गांवों में काफी अच्छा लगता था। अब वो दौर ही समाप्त हो चुका है। आजकल के बच्चे भी झूलों को लेकर उत्साहित नहीं दिखते। 

श्रीमती सोनम विश्वकर्मा 

बचपन में सावन में झूले पड़ते थे। काफी अच्छा लगता है। अब मायके और ससुराल कहीं भी झूले दिखाई नहीं देते। बच्चे भी अब झूला झूलने के बजाय फोन में ही व्यस्त रहते हैं।

श्रीमती प्रमिला नेमा, सांचेत 

पुराने दिन काफी अच्छे थे। सावन में ससुराल से महिलाएं मायके आ जाती थीं। पेड़ों पर झूले पड़ते थे। हम सभी झूले झूलते थे। अब पूरा दौर ही बदल गया। अब कहीं भी झूले नहीं दिखाई देते। 

कुमारी प्रियंका मैथिल

 

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