हरीश मिश्र रायसेन। IND28.COM

हमारा देश उत्सव धर्मी है। सालभर उत्सव के आनंद में डूबा रहता है। होली , दीपावली , संक्रांति के अवसर पर दान पात्र को देने की परम्परा है। सनातन धर्म में दान देने का विशेष महत्व रहा है। दान देने को पुण्य का कार्य माना जाता है। ऐसे ही लोकतंत्र उत्सव पर मतदान करने की परम्परा है। मतदाता  संघर्षशील, जुझारू, आर्थिक रूप से कमजोर प्रत्याशी को मत देकर दान देता है।जिसे दान देते हैं । वह दान मिलते ही माननीय बन जाता है और पांच साल तक मतदाताओं से दान लेता है। विधानसभा चुनाव 2023 में अधिक से अधिक मतदान के लिए प्रेरित करने की निर्वाचन आयोग ने तैयारी जोर-शोर से प्रारंभ कर दी हैं । मतदाता 2023 विधानसभा चुनाव में वोट डालेगा  और अगले 5 साल तक आम आदमी की जिंदगी का हर फैसला लेने का अधिकार विधायकों के हाथों में सौंप देगा। राजनैतिक दल टिकट देने से पहले मतदाताओं से नहीं पूछता किसे प्रत्याशी बनाए।  प्रत्याशी थोप जाते हैं। ऐसे प्रत्याशी जो ऊंचे महलों में रहते हैं । कोई भी प्रत्याशी करोड़पति से कम नहीं होता । ये करोड़ों रुपए कहां से आए,  मेहनत से, नहीं ये पैसा जनता का है । दोष किस का है ? दोष उनका नहीं जो 5 साल के लिए चुनकर जाते हैं। बल्कि दोष मतदाता का है। जो अपने मतदान की ताकत को नहीं जानते। हमें हमारी ताकत भी विज्ञापन से, प्रचार प्रसार से निर्वाचन आयोग बताता हैै । हम मत का उपयोग करने से पूर्व प्रत्याशियों से अनुबंध नहीं करते । जबकि अपनी दुकान किराए पर देते समय भी हम सजग होकर किराएदार से 11 महीने का अनुबंध करते हैं।  किंतु राजनेताओं से कोई अनुबंध नहीं करते। जो 5 साल तक हमारे भाग्य के विधाता हैं ।

इसीलिए लोकतंत्र में तंत्र, लोक पर हावी है । कभी-कभी लगता है कि तंत्र ही लोक का मालिक बनकर बैठ गया । हमें अपने मत की ताकत को समझना होगा । हमें यह समझना होगा कि लोकतंत्र में लोगों की भूमिका 5 साल में एक बार वोट देकर सरकार चुनने तक की ही नहीं होती ।क्रांतिकारियों ने आज़ादी की लड़ाई केवल अंग्रेजों को इस मुल्क से भगाने के लिए नहीं लड़ी थी ।  आज़ादी की लड़ाई स्वराज के लिए लड़ी गई थी। एक सपना था भारत आज़ाद होगा तो अपने वतन में , अपनी माटी पर , अपना राज होगा , जनता राज करेगी । लोग सुख शांति से न्याय संगत समाज में जी सकेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेज चले गए लेकिन उनकी बनाई व्यवस्था और अंग्रेजीयत कायम रही ।  समय के साथ-साथ भ्रष्टाचार बढ़ता गया। अमीर और अमीर होते गए, वहीं गरीब और गरीब। स्वराज, जिसके लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी, उसका तो दूर-दूर तक नामोनिशान ही नहीं रहा ।हमें इस मुल्क में स्वराज चाहिए था । पर  मिला क्या?  एक नेता और एक अधिकारी ।  जो दिल्ली में बैठकर, भोपाल में बैठकर लाखों करोड़ों रुपए की योजना बनाते हैं और पैसा डकार जाते हैं। यह पैसा जनता तक पहुंचने की जगह भ्रष्टाचारियों की जेब में चला जाता है ।  हमें ऐसा विकास नहीं चाहिए । हमें ऐसा जनप्रतिनिधि नहीं चाहिए। स्वराज होगा तो जनता खुद विकास कर लेगी ।आज़ादी के बाद से अभी तक इस मुल्क के लोग अपना अधिकार नहीं जानते। तभी तो निर्वाचन आयोग को सजग करना पड़ रहा है कि मतदान आपका अधिकार है। मतदान का अधिकार याद दिलाने में ही करोड़ों रुपए विज्ञापन में,प्रचार प्रसार में  खर्च किए जाते हैं। उस मुल्क में इतनी आसानी से स्वराज नहीं आ सकता। जिस मुल्क के लोग आज तक अपने अधिकार को ही नहीं समझ सके वे स्वराज को कैसे समझेंगे । चंद लोग हैं जो अपना अधिकार जानते हैं वही लोग मलाई खा रहे हैं ।

सरकारी स्तर पर जो मतदाता जागरूकता अभियान चलाया  रहा है।  उसके पीछे जनता की बड़ी स्वीकृति नहीं है । वह जन आंदोलन नहीं है । इसलिए मतदान करो अभियान सरकार की अन्य योजनाओं के तरह एक ढकोसला ,एक  प्रोपोगंडा मात्र है। हमारा दुर्भाग्य है कि निर्वाचन आयोग हमें बताता है कि हमें मतदान करना चाहिए ।

भारत में राजनैतिक पार्टियों और जनता के बीच सामंजस्य ही स्थापित नहीं हो पाया । क्योंकि अधिकांश राजनेताओं ने दौलत कमाना ही अपना मुख्य समाज सेवा का कार्य समझा । पार्टियां भव्य  इमारतें  नगर-नगर में अपने कार्यालय बनाकर पूंजीपतियों से भी ज्यादा पूंजीपति हो गई ।उनका जो पार्टी तंत्र रहा उसका एकमात्र    लक्ष्य रहा कि किसी भी तरह सत्ता के माध्यम से आर्थिक संसाधनों पर कब्जा और  व्यक्तिगत स्वार्थ का साम्राज्य स्थापित करना । इनका मुख्य लक्ष्य एक ही है पैसा । यथा राजा तथा प्रजा ।  जहां  राजा ईमानदारी को अपना ईमान नहीं मानते और एन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं। वहां आम जनता तक भी यह संदेश पहुंचता है कि अपना उल्लू सीधा करें । यह दुर्भाग्य है की कुछ बड़े जन नेता इस बीच उभरे और उन्होंने जन जागृति,  जन अभियान की चेष्टा भी  की ।  बाद में उनकी आवाजें भ्रष्ट एवं दुष्ट राजनेताओं द्वारा मूक की गई । उनकी आवाज़ का दमखम खत्म हो गया। निश्चित ही मतदाता जागरूकता की वास्तविक आवश्यकता है । जिसको अभी तक केवल  दिखावे के रूप में ही आगे बढ़ाया गया है। हमें अपने मत की ताकत को समझना होगा। दान पात्र को देना होगा, कुपात्र को नहीं।

 

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