तरह-तरह के रूप बदलकर बहरूपिया कर रहे हैं लोगों का मनोरंजन
-मॉडर्न ज़माने में विलुप्त हो रही है बहरूपिया कला, परिवार चलाना हुआ मुश्किल
अदनान खान सलामतपुर रायसेन। (एडिटर इन चीफ IND28 हर खबर पर पैनी नज़र)
कस्बा सांचेत और आसपास के ग्रामों में निसद्दीखेड़ा ग्यारसावाद मैं रोज बहरूपिया अलग-अलग रूप रखकर लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं। यह बहरूपिया इंसू राजस्थान हांसपुर ज़िला सीकर के रहवासी है। इंसु बहरूपिया बताते हैं की विलुप्त होती जा रही है बहुसंस्कृति वाले भारत में बहरूपिया कला तकनीकी दौर में भारतीय लोक संस्कृति कला विलुप्त होती जा रही है। बदलते जमाने के साथ साथ बहरूपिया का भी जमाना चला गया। आज के आधुनिक युग में जब दुनिया इंटरनेट के माध्यम से मनोरंजन में व्यस्त है, पहले के दौर में गांव-गांव व कस्बों में महीनों तक अपनी रंग रूप साज-सज्जा को विभिन्न परिधानों से सुसज्जित कर लोगों का मनोरंजन करना ही बहरूपियों की कला हुआ करती थी। मनोरंजन के लिए पहले के जमाने में लोग कठपुतलियों के नाच सहित विभिन्न पौराणिक कलाओं का सहारा लेते थे। इन्हीं में से एक नाम बहुरूपिया कला का भी आता है। लेकिन, टेलीवीजन ,स्मार्टफोन और तकनीकी दौर में भारतीय लोक संस्कृति कला विलुप्त होती जा रही है।
10 से 12 दिन किसी गांव में रुककर करते हैं मनोरंजन---पूर्व के समय में काफी प्रचलन में रही इस कला को अब प्रदर्शित करने वाले कलाकार स्थानीय स्तर पर दूर-दूर तक नजर नहीं आते हैं। अब तो दूसरे राज्य के कलाकार कभी-कभार किसी गांव में चले आए तो वे अपनी कला का प्रदर्शन कर लोगों का मनोरंजन करते हैं। वे 10 से 12 दिन किसी गांव में रुकते हैं और हर दिन अलग अलग रूप बनाकर बहुरूपिया कला का प्रदर्शन करते हैं। इसके बदले में स्थानीय लोगों के माध्यम से उन्हें जो कुछ भी पारितोषिक के रूप में प्राप्त होता है वह बगैर हील-हुज्जत अपनी आजीविका चलाने के लिए रख लेते हैं। बहुरूपिया कला में माहिर हांसपुर जिला सीकर राजस्थान के निवासी इंसु बहुरूपिया लगातार 15 वर्षों से रायसेन जिले के सांचेत निसद्दीखेड़ा आते हैं। उनके पूर्वज भी इसी कला के सहारे अपना जीवन-यापन करते थे। वर्तमान में उनके दो भाई इस कला का प्रदर्शन विभिन्न राज्यों में घूम-घूम कर करते हैं। इनके भाई राजू बहुरूपिया व मामा सुबराती बहुरूपिया देश-विदेश में अपनी कला का जौहर दिखा चुके हैं। हर वर्ष वे किराये का मकान ले लगातार 12 दिन तक अलग-अलग वेष बनाते हैं। कभी पागल जिन्न, भगवान, तो कभी किसी महापुरूष सहित विभिन्न व्यक्तित्व का रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करते हैं और चले जाते हैं।
मॉडर्न ज़माने में विलुप्त हो रही है बहरूपिया कला---इस कला का दुर्भाग्य यह है कि आज के जमाने में इसका महत्व घटता चला जा रहा है। लोगों की अनदेखी के कारण अब बहुरूपियों को पेट भरना मुश्किल पड़ रहा है। इंसु बहुरूपिया बताते हैं कि हमारी पहचान इसी कला से है। पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन यही कला रही है। लेकिन आज की कथित मॉडर्न पीढ़ी इस कला को करना या देखना उतना पसंद नहीं करती जितनी की यह हकदार है। लोगों से भी अब ज्यादा प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। लॉकडाउन से पहले जिले के फुलपरास, संग्राम व नरहैया में कला दिखा सुपौल स्थित अपने वर्तमान आवास पर बीवी-बच्चों के पास चला गया था। पिछले तीन महीने में भोजन की समस्या उत्पन्न हो गई तो अनलॉक में फिर से निकल पड़ा हूं। अब इस काम से परिवार का गुजर-बसर करना मुश्किल हो गया है।